आज/ कल
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Published on:
10 Nov 2020
Updated on:
आज वो फिर आया
पांव को ज़ोर ज़ोर से ठोक कर
करता हुआ एलान
घुस गया बेधड़क
स्कूल में
जानता था वो
कि कोई नहीं रोकेगा उसे
रौंदता गया अनगनित सपनों को
अपनी बंदूक की नोंक से
फिर देखा एक तिरछी नज़र से मेरी तरफ
और ज़ोर से किया अट्टाहास
क्षण भर के लिए
कांप उठी ये धरती
गिरने लगे मकान
जल गयी घास
आ गया भूकंप
लगा कुछ वक़्त संभलने में
होश आया
तो मैंने एक
समझदार, शिक्षित,
दिमाग से पूरी तरह प्रबल
नागरिक का कर्तव्य निभाया
अपना ध्यान वहाँ से हटा कर
धूप का चश्मा चढ़ाया
कार के काले शीशे बंद किये
पहले से तेज़ रेडियो को और तेज़ किया
और घर आई
चाय पी
खाना बनाया
घूमने गयी
फ़ेसबुक पर
गुस्से में दो फॉर्वर्ड भी किए
और निश्चिंत हो
सो गई
सुबह
जब बच्चों को स्कूल के लिए
उठाने गयी
तो पता नहीं कब और कैसे
रात भर में उनकी आँखें
आईने में तब्दील हो चुकी थीं
मैं अवाक्, स्तब्ध
कि तभी उन आंखों ने किया
कल से भी बड़ा अट्टाहास
पर इस बार
नहीं गिरा कोई मकान
घास ने जलने से कर दिया इंकार
धरती भी खडी रही अपनी जगह
पर मैं
अपनी ही नज़रों में
थोड़ी-सी गिरी
पर मैं
फिर से
थोड़ी-सी मरी
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14 Nov 2020
Brajesh Krishna
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति। भावपू्र्ण, सशक्त कविता।
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11 Nov 2020
Shikha Gupta
Great work! Look forward to more :)